मुक्ति में है हर्ष अपार – सेवा-निवृत्ति के पल (अक्तूबर-2002) आत्म-कथ्य-लखमीचंद तिवानी
मुक्त है धरती मुक्त गगन है, मुक्त है नदिया मुक्त पवन है।
मुक्त हैं पक्षी और उनकी उड़ान, मुक्त हैं पौधे मुक्त चमन है॥
मुक्त है सूरज मुक्त है चंदा। मुक्त है तारों का उजियार।
कितना सुख है इस मुक्ति में, मुक्ति है जीवन का सार॥
बस इतना-सा ध्यान रहे, कहते 'वानी' के उद्गार।
बंधन ही तो सिखलाता है, मुक्ति में है हर्ष अपार॥
पल आया – सेवा-निवृत्ति के पल (सितम्बर 2006) आत्म-कथ्य-लीला तिवानी
कभी फूलों ने आघात दिए, कभी ख़ारों ने है हर्षाया,
इसी तरह ज़माने में हमने, कभी कुछ खोया कभी कुछ पाया।
कभी महफिल ने दी तनहाई, कभी तनहाई ने बहलाया,
ऐसे ही बरसों बीत गए, सेवा-निवृत्ति का पल आया॥
यह पल भी कितना सुन्दर है, प्यारा है कितना प्यारा है,
इस पल के आनंद की खातिर, नैनों ने कितना निहारा है।
अब जीवट से इसे जीना है, मुक्ति ने मुझे पुकारा है,
मुक्ति की मौजों के सागर में, पाना सही किनारा है॥
1 comment:
लीला बहन, जब हम भी मुक्त हुए थे कितना आनंद था , कितना उल्हास था , बस ऐसे मालूम होता था जैसे आज ही मालूम हुआ हो कि वलाएत किया है . सोचा था जिंदगी को घूम फिर के मज़े करेंगे . हर वैडिंग फंक्शन में डांस करते थे . बस ऐसा लगता था हम खुले आसमान में उड़ रहे हों . आप की कविता पड़ कर लिखने को मन कर आया . जो नहीं हो सका उस का कोई पछतावा नहीं , जो है उस का आनंद ले रहे हैं . अँगरेज़ लोग हम को पूछा करते थे , तुम हौलिडे किओं नहीं जाते ? उनको किया समझाते कि हम भारती तो कबील्दारी के चक्रों में ही फंसे रहते हैं . सोचा था सब तरफ से फ़ार्ग हो कर रीताएर्मैन्त ले कर एन्जॉय करेंगे , अब मालूम हुआ गोर सही थे जो जवानी में हौलिडे किया करते थे . खैर जो भी है अब भी ऐन्जोय्मैन्त ही है . दोनों मियाँ बीवी खुश रहते हैं , कभी नोंक झोंक भी हो जाती है , फिर नॉर्मल हो जाते हैं लेकिन खुश हैं , बस जीना इसी का नाम है . मज़े में हैं . आप की कविता ने ही मुझे यह कॉमेंट लिखने को प्रेरत किया . आप का भाई गुरमेल भमरा
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